Friday 13 February 2015

जीवन संध्या


जीवन संध्या






जीवन की संध्या पहर है आई,
जड़ें हो रही हैं निर्बल,
तरु की भार भी नहीं संभलती,
ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

देख क्षितिज पे लालिमा गहराई,
रवि का तेज़ हो रहा नरम,
पंछी लौट रहे अब घर को ,
छोड़ मोह वन उपवन को। 
                
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

सहस्त्र सितारों को अब है आना,
चंदा भी बैठा आँचल फ़ैलाने को,
तेरी शाख़ें भी विस्तृत हैं फैली,
कर माया का तू भी परित्याग,
            
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

जड़ें नूतन कर फैले शाख में,
शीतल चांदनी  मनोरम संग,
चीर निद्रा को कर आलिंगन ,
तत्पर हो जा नए सफर को।  

                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई।

आदित्य सिन्हा, 
13. 02. 2015. 
अलीगढ़। 

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